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Sunday, March 27, 2011

मैं



दुनिया के शोर शराबे में,

एक संभलती सी आवाज़ हूँ मैं.

बड़े बड़े नामों में अपनी पहचान

बनाने का प्रयास हूँ मैं.

इन्सानियत में जो जीवित है अभी

वो जज़्बात हूँ मैं.

नजाकत से लबरेज है जो

वो ज़बाने-अंदाज़ हूँ मैं.

बंदगी में ही जिसे महसूस किया जा सके

वो एहसास हूँ मैं.

पाकीजगी है जिसमें बेहद

सुबह की वो नमाज़ हूँ मैं.

- अपर्णा शुक्ल

Tuesday, March 15, 2011

एक सुनहरे शहर की सुनहरी सी यादें

एक सुनहरे शहर की सुनहरी सी यादें,

वोह शाम को उडती पतंगों के नज़ारे,
लहराते सुरमई झिलमिल किनारे,
चेह्चेहाती चिड़ियों से गूंजते नीम की भरी भरी डारें,
चाय- पकौडों के लिए माँ की प्यार भरी गुहारें,
वोह निशातगंज की गलियों में घंटों खरीददारी;
न समझ आने पे पकड़ी अमीनाबाद की सवारी,
वोह चौक की उम्दा चिकनकारी,
वोह दस रुपये के रिक्शे की शाही सवारी,
वोह प्रकाश कुल्फी के मस्त कुल्हड़,
टुंडे कबाब के ढेरों प्रशंसक,
नजाकत,नफासत, से लबरेज ज़बान,
मेरे लखनऊ आज भी तहज़ीब तेरी शान,
कहाँ तक मैं बयां करून तेरी बातें,
एक सुनहरे शहर की सुनहरी सी यादें.

- अपर्णा वाजपेयी शुक्ल

Monday, March 14, 2011

रिश्ते ख़ामोश हुए



जाने पहचाने से रास्तों से, गुज़रते हुए,

कुछ खिली - खिली,कुछ रंगीन, पंखुडियां

दामन में बटोरीं थीं; बड़े प्यार दुलार से.

वोह कमतर साबित हुआ.

उन्हें सहेजने और समेटने में

दामन तार-तार हो गया.

उनकी कंटीली चुभन से

मन लहूलुहान हो गया.

ये ज़िन्दगी का पहला सबक था.

भुलाये नहीं भूलता था.

बार बार कंटीली पंखुड़ियों को,

समेट लेने का मनं करता था,

पर वजूद ने उनकी और पैरवी न करी,

एक मौलसिरी के दरख़्त के नीचे ही अब,

उन पाकीज़ा पंखुड़ियों को दफ़न कर आई हूँ,

जिन्हें कभी बड़े प्यार और दुलार से सहेजा था,

उन्हें अब और मत कुरेदो,

उनसे रिश्ते ख़ामोश हुए,

अब उन्हें चैन की सांस लेने दो.

अब मुझे चैन की सांस लेने दो.

-aparna shukla