Total Pageviews

Wednesday, December 28, 2011

माँ

शब्द कम हैं ,

भाव अपरिमित, माँ,

क्या लिखूं आप पर मैं?

लेखनी गिर गिर जाती है,

न छंद , न लय, न अलंकार सूझते हैं,

जब आपकी छवि सामने आती है.

भावनाएं ही उमडती हैं,माँ,

सौम्य, संतुलित निर्मलता

ही पाई हमेशा आपमें ,

सादगी और सरलता आपके हास्य में,

आवरण सुरक्षा का आज भी,

अनुभव होता है आस पास, माँ,

साहस और सहनशक्ति का सबक

आपके मार्ग से,माँ,

मन के कोने आपके स्नेह

और आशीर्वाद से भीने रहते हैं,

कि आपने ही मज़बूत रहने को कहा था.

-डॉ. अपर्णा शुक्ल

Sunday, December 18, 2011

मित्र

मित्र तुम बहुत याद आते हो,
बचपन की उन यादों में ,
भोली प्यारी मुस्कानों में,
एक छवि तुम्हारी प्यारी सी,
अनोखी, सबसे न्यारी सी,
मीत, सखी, मन के बंधन,
कितना लंबा यूँ साथ हुआ,
स्नेह भरे पथ के दीपक,
अपनी ज्योति से आलोकित करती होगी कई जीवन,
तुम्हारे प्रकाश स्पर्श की स्मृतियों
के गलियारों से,
ध्वनि अभी भी आती है,
मीत तुम बहुत याद आती हो.
-डॉ. अपर्णा शुक्ल

Wednesday, November 23, 2011

मेरा समय

भोर का सूरज किरणे बिखेरे आ गया है,
बड़ा भरमाया बरसों मुझे, पर
मेरा समय अब आ गया है.
लक्ष्य पर तिमिर घन छा गए थे
छिन्न भिन्न कर गरल की कालिमा को
अमृत घट छल छला गया है.
मेरा समय अब आ गया है.
कंटकाकीर्ण पथ ने उलझाया बहुत,
पर थके हुए पथिक का विश्राम अब आ गया है.
आगे प्रकाश ही प्रकाश है,
हे प्रभु! आपकी ज्योति से सर्वस्व आलोकित हो गया है.

Wednesday, August 24, 2011

कुछ संघर्ष समाज से, कुछ संघर्ष अपने आप से

जन्मभूमि से जब भी भेंट होती है विधान से,

एक संघर्ष सा छिड़ जाता है कभी समाज से

कभी अपने आप से;

चेतना को झकझोर देती हैं विचारों की आंधियां,

ऊहापोह से नित्य कौंधती आक्रोश की बिजलियाँ,

ऐसा क्यूँ हुआ?किसलिए हुआ?

प्रश्न पे प्रश्नों की झाडियाँ लगाती सामाजिक परिपाटियां;

फिर चिढा देता है समाज का वही "व्यवस्थित ढांचा",

और

एक संघर्ष सा छिड़ जाता है कभी समाज से

कभी अपने आप से;

कभी अस्तित्व पे कभी आत्मा पे यूँ ही

बुझती रहती हूँ मैं पहेलियाँ;

सामान्य जीवन चल रहा है और यहाँ,

संघर्षरत मन की अटखेलियाँ.

अपेक्षाओं के अबूझ चक्रव्यूह में यूँ ही

होता देख व्यतीत मनुष्य का ये जीवन अमूल्य

मानस सिसक उठता है,

आत्म आतंकित हो बैठता है

क्या यही झंझावात रहेगा हमेशा?

क्या यूँ ही सहचर बंधू आत्माएं युद्धरत रहेंगी हमेशा?

और फिर विचारों का

एक संघर्ष सा छिड़ जाता है कभी समाज से

कभी अपने आप से!

- अपर्णा वाजपेयी शुक्ल


Monday, June 13, 2011

भावनाएं बहतीं हैं

ह्रदय के कोमल, सरल सलिल से
भावनाएं बहतीं हैं,
कभी अश्रुपूरित, कभी हास्य मिश्रित,
कभी चोटिल, कभी खिल खिल ,
कभी बोझल, कभी फूल,
कभी कंटीली, कभी सरस,
जो अपने ज्वार भाते में गिराती और उठाती हैं,
मनुष्य को मनुष्य बनाती हैं,
जीवन को को कोमल या कठोर दिशा देती हैं,
भावनाएं देवत्व से तार जोड़ती हैं,
जब ईश्वर की राह में बहती हैं,
जब ईश्वर की राह में बहती हैं.
- अपर्णा वाजपेयी शुक्ल


Monday, May 23, 2011

बोझल बंधन

बंधन जो बोझ बनें,
वो मन के रिश्ते नहीं,
एक व्यवहार हैं, एक व्यापार हैं,
जिनकी बुनियाद ही स्वार्थ है,
नीव में ईर्ष्या का हलाहल है,
वो मन के रिश्ते नहीं ,
एक गुबार हैं,
जो कभी कटाक्ष, कभी कड़वाहट ,
कभी व्यंग्य में ही प्रगट होते हैं ,
वे रिश्ते बड़े बेमानी और बेमतलब होते हैं,
मुखौटों पर व्यर्थ की मुस्कान के ढोंग,
में जो प्रवीण होते हैं,
वे रिश्ते बड़े निर्जीव और नीरस होते हैं,
जो जीवन से प्राण खींच लेते हैं,
वे रिश्ते बड़े संगीन होते हैं,
वे रिश्ते बड़े संगीन होते हैं,
वे रिश्ते बड़े संगीन होते हैं.
- अपर्णा वाजपेयी शुक्ल

Sunday, March 27, 2011

मैं



दुनिया के शोर शराबे में,

एक संभलती सी आवाज़ हूँ मैं.

बड़े बड़े नामों में अपनी पहचान

बनाने का प्रयास हूँ मैं.

इन्सानियत में जो जीवित है अभी

वो जज़्बात हूँ मैं.

नजाकत से लबरेज है जो

वो ज़बाने-अंदाज़ हूँ मैं.

बंदगी में ही जिसे महसूस किया जा सके

वो एहसास हूँ मैं.

पाकीजगी है जिसमें बेहद

सुबह की वो नमाज़ हूँ मैं.

- अपर्णा शुक्ल