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Wednesday, August 24, 2011

कुछ संघर्ष समाज से, कुछ संघर्ष अपने आप से

जन्मभूमि से जब भी भेंट होती है विधान से,

एक संघर्ष सा छिड़ जाता है कभी समाज से

कभी अपने आप से;

चेतना को झकझोर देती हैं विचारों की आंधियां,

ऊहापोह से नित्य कौंधती आक्रोश की बिजलियाँ,

ऐसा क्यूँ हुआ?किसलिए हुआ?

प्रश्न पे प्रश्नों की झाडियाँ लगाती सामाजिक परिपाटियां;

फिर चिढा देता है समाज का वही "व्यवस्थित ढांचा",

और

एक संघर्ष सा छिड़ जाता है कभी समाज से

कभी अपने आप से;

कभी अस्तित्व पे कभी आत्मा पे यूँ ही

बुझती रहती हूँ मैं पहेलियाँ;

सामान्य जीवन चल रहा है और यहाँ,

संघर्षरत मन की अटखेलियाँ.

अपेक्षाओं के अबूझ चक्रव्यूह में यूँ ही

होता देख व्यतीत मनुष्य का ये जीवन अमूल्य

मानस सिसक उठता है,

आत्म आतंकित हो बैठता है

क्या यही झंझावात रहेगा हमेशा?

क्या यूँ ही सहचर बंधू आत्माएं युद्धरत रहेंगी हमेशा?

और फिर विचारों का

एक संघर्ष सा छिड़ जाता है कभी समाज से

कभी अपने आप से!

- अपर्णा वाजपेयी शुक्ल


1 comment:

  1. aapki rachnaye dil ko chooti hain ... keep it up ... keep posting .... its a pleasure to read you.

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