वो मन के रिश्ते नहीं,
एक व्यवहार हैं, एक व्यापार हैं,
जिनकी बुनियाद ही स्वार्थ है,
नीव में ईर्ष्या का हलाहल है,
वो मन के रिश्ते नहीं ,
एक गुबार हैं,
जो कभी कटाक्ष, कभी कड़वाहट ,
कभी व्यंग्य में ही प्रगट होते हैं ,
वे रिश्ते बड़े बेमानी और बेमतलब होते हैं,
मुखौटों पर व्यर्थ की मुस्कान के ढोंग,
में जो प्रवीण होते हैं,
वे रिश्ते बड़े निर्जीव और नीरस होते हैं,
जो जीवन से प्राण खींच लेते हैं,
वे रिश्ते बड़े संगीन होते हैं,
वे रिश्ते बड़े संगीन होते हैं,
वे रिश्ते बड़े संगीन होते हैं.
- अपर्णा वाजपेयी शुक्ल
जीवन के कटु यथार्थ का आभास है ये बोझल बंधन । शुभकामनाएँ...
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ReplyDeletedhanyavad sir...
ReplyDeleteपाठकों के प्रोत्साहन से ही प्रेरणा जागृत होती है.सभी पढ़ने वालों का विनम्र और हार्दिक धन्यवाद.इसके अतिरिक्त जो मुझसे बड़े हैं और उचित दिशा निर्देश देते रहते हैं उन्हें शत शत नमन.
ReplyDeleteaapke jitni saras Hindi me likhna to hume kabhi bhi nahi aata tha isliye angrezi me hi comment kar rahe hain - sometimes the simplest emotions and the hardest to express and you have expressed the truth behind the most nagging thoughts so beautifully! Ati saral, sundar aur satya!
ReplyDeleteThanks buds....ur comment is v special for me!
ReplyDeletewonderful words by a wonderful poet....
ReplyDeletedhanyavaad!
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